मानसून भारत में आता है और अपने साथ देश में लाखों लोगों द्वारा मनाए जाने वाले कई त्योहार और व्रत या पूजा लाता है। हिंदू कैलेंडर में आषाढ़ और श्रावण के महीने, मुख्य रूप से जून और जुलाई में, पवित्र दिनों की एक श्रृंखला होती है। देवशयनी एकादशी को पद्मा एकादशी या आषाढ़ी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। इस साल देवशयनी एकादशी रविवार, 6 जुलाई 2025 को मनाई जाएगी। आइए देवशयनी एकादशी 2025 की पूजा विधि, देवशयनी एकादशी का ज्योतिषीय महत्व और उपायों के बारे में जानें।
देवशयनी एकादशी क्या है? (devshayni ekadashi kya hai)
आषाढ़ की पूर्णिमा के ग्यारहवें दिन को देवशयनी एकादशी के रूप में मनाया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस दिन भगवान विष्णु सो जाते हैं या गहन ध्यान में होते हैं और चार महीने बाद प्रबोधिनी एकादशी या देवउठनी ग्यारस के दिन उठते हैं। देवशयनी एकादशी ज्यादातर हर साल जगन्नाथ रथ यात्रा के करीब ही आती है।
देवशयनी एकादशी – समय और तारीख
एकादशी तिथि शुरू – जुलाई 05, 2025 को 09:28 बजे
एकादशी तिथि समाप्त – जुलाई 06, 2025 को 11:44 बजे
देवशयनी एकादशी का महत्व (devshayni ekadashi ka mahatva)
शास्त्रों के अनुसार देवशयनी एकादशी से चातुर्मास की शुरूआत होती है और चार महीने तक 16 संस्कार पर रोक रहती है। हालांकि पूजा, अनुष्ठान, मरम्मत किए गए घर में प्रवेश, वाहन और आभूषण खरीदने जैसे काम हो सकते हैं। इस एकादशी को सौभाग्यादिनी एकादशी भी कहते हैं। पद्म पुराण के अनुसार इस दिन व्रत या उपवास करने से जाने पहचाने या अनजाने में हुए पापों का नाश होता है। इस दिन विधि – विधान से पूजा करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार इस व्रत को करने से मनोकामनाएं भी पूरी होती हैं।
देवशयनी एकादशी का इतिहास (devshayni ekadashi ka itihaas)
देवशयनी एकादशी के दिन भगवान हरि, देवी लक्ष्मी और तुलसी की भी पूजा की जाती है। चातुर्मास के दौरान पूजा, कथा, कर्मकांड से सकारात्मक ऊर्जा आती है। चातुर्मास को भजन, कीर्तन और कथा के लिए सबसे अच्छा समय माना जाता है।
भागवत महापुराण के अनुसार आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को शंखसुर नामक राक्षस का वध हुआ था। उस दिन से भगवान चार महीने तक क्षीर सागर में सोते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस दिन भगवान विष्णु सो जाते हैं या गहन ध्यान में होते हैं और चार महीने बाद प्रबोधिनी एकादशी या देवउठनी ग्यारस को उठते हैं। इन दिनों में पूजा का बहुत महत्व है, क्योंकि हिंदू कैलेंडर में चतुर्मास या चार महीने की पवित्र अवधि इस दिन से शुरू होती है। श्रावण, भाद्र, अश्विन और कार्तिक सहित चातुर्मास के चार महीने जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, नवरात्रि और दिवाली जैसे सभी महत्वपूर्ण हिंदू त्योहारों को चिह्नित करते हैं। देवशयनी एकादशी पर, कई भक्त उपवास करते हैं और भगवान विष्णु का आशीर्वाद लेते हैं।
देवशयनी एकादशी पूजा विधि (devshayni ekadashi pooja vidhi)
देवशयनी एकादशी व्रत को करने के लिये इस व्रत की तैयारी दशमी तिथि से ही शुरू कर देनी चाहिए। सबसे पहले दशमी तिथि की रात्रि के भोजन में किसी तरह के तामसिक भोजन को स्थान न दें। संभव हो तो भोजन में नमक का प्रयोग न करें। ऐस करने से व्रत के पुण्य में कमी होती है इस दिन व्यक्ति को भूमि पर शयन करना चाहिए। इसी के साथ जौ, मांस, गेहूं तथा मूंग की दाल का सेवन करने से बचना चाहिए। यह व्रतदशमी तिथि से शुरु होकर द्वादशी तिथि की सुबह तक चलता है। दशमी तिथि और एकाद्शी तिथि दोनों ही तिथियों में सत्य बोलना और दूसरों को दु:ख या अहित करने वाले शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
इसी के साथ शास्त्रों में व्रत के जो सामान्य नियम बताये गए है, उनका सख्ती से पालन करें। एकाद्शी तिथि में व्रत करने के लिये सुबह जल्दी उठकर, नित्यक्रियाओं से निवृत्त होकर स्नान करें। एकादशी का स्नान यदि किसी तीर्थ या पवित्र नदी में करने का विशेष महत्व है। लेकिन यदि ऐसा संभव न हो तो तो साधक को इस दिन घर में ही स्नान कर लेना चाहिए और यदि संभव हो तो स्नान करते समय मिट्टी, तिल और कुशा का प्रयोग करना चाहिए। दैनिक कार्य और स्नान के बाद भगवान विष्णु का पूजन करें। पूजन करने के लिए धान्य के ऊपर कुम्भ रख कर, कुम्भ को लाल रंग के वस्त्र से बांधना चाहिए, इसके बाद कुम्भ की पूजा करनी चाहिए। जिसे कुम्भ स्थापना के नाम से जाना जाता है। कुम्भ के ऊपर भगवान की प्रतिमा या तस्वीर रख कर पूजा करनी चाहिए। ये सभी क्रियाएं करने के बाद धूप, दीप और पुष्प से पूजा करनी चाहीए।
देवशयनी एकादशी कथा (devshayni ekadashi katha)
सतयुग के दौरान, मंधाता नाम के एक कुलीन राजा का शासन था, जिसके राज्य में लोग बिना किसी शोक के खुशी से रह रहे थे। एक बार, उनका राज्य लगभग तीन वर्षों तक भयंकर सूखे और अकाल से प्रभावित रहा। राजा को अपनी प्रजा से बहुत प्रेम था और इसलिए जब उसने सूखे के दौरान अपनी प्रजा की दयनीय स्थिति देखी, तो वह उनके संकटों से बहुत परेशान था। इस प्रकार, अपनी प्रजा को इस अंतहीन पीड़ा से मुक्त करने और समस्या का उचित समाधान पाने के लिए राजा ने अपने सैनिकों के साथ जंगल की ओर प्रस्थान किया। जंगल में घूमते हुए, वह ऋषि अंगिरा के आश्रम में आए जो कि भगवान ब्रह्मा के पुत्र हैं। राजा मान्धाता को अपने सामने हाथ जोड़कर खड़े देखकर, संत अंगिरा ने उनसे यात्रा के उद्देश्य के बारे में पूछा।
राजा संत के चरणों में गिर गया और उससे दया मांगी और उसे अपने शोक का कारण बताया। फिर, संत अंगिरा ने उन्हें आषाढ़ के महीने में होने वाली एकादशी का व्रत रखने के लिए कहा और यह भी कहा कि, यदि वह उस व्रत को धार्मिक रूप से करेंगे तो निश्चित रूप से अच्छी बारिश होगी और उनका राज्य फिर से पहले की तरह समृद्ध होगा। संत के आशीर्वाद से, राजा मान्धाता अपने राज्य में वापस आ गए और धार्मिक रूप से देवशयनी एकादशी का व्रत रखा। जल्द ही, उनकी धार्मिक प्रार्थनाओं और भगवान विष्णु की कृपा के प्रभाव से उनके राज्य में भारी बारिश हुई जो हर जगह हरियाली और समृद्धि की ओर ले जाती है। इस प्रकार, इस दिन उपवास रखने और भगवान विष्णु की विशेष पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं और सभी पाप खत्म होकर मोक्ष प्राप्त होता है।
देवशयनी एकादशी का वैज्ञानिक महत्व (devshayni ekadashi ka vaigyanik mahatva)
देवशयनी एकादशी के दिन से पवित्र मतुर्मास माह की शुरूआत होती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो चतुर्मास की शुरूआत के साथ ही भारत के विभिन्न हिस्सों में मानसून की शुरूआत हो जाती है या मानसून सक्रीय हो जाता है। ज्योतिषीय मान्यताओें के अनुसार इन महीनों के दौरान वातावरण में नमी के बाढ़ने के कारण कई तरह के सूक्ष्म जीव जंतुओं का जन्म होता है और वे मानव शरीर को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसीलिए हमारे पूर्वज ऋषि मुनियों ने इन चार महीनों के लिए कुछ तरह के धार्मिक नियमों का निर्माण किया और लोगों को इनका अनुसारण करने के लिए प्रेरित किया। देवशयनी एकादशी का वैज्ञानिक महत्व होने के साथ ही, देवशयनी एकादशी का ज्योतिषीय महत्व भी है। आइए देवशयनी के ज्योतिषीय महत्व को समझें।
देवशयनी एकादशी का ज्योतिषीय महत्व (devshayni ekadashi ka jyotish mahatva)
देवशयनी एकादशी के दिन से देवउठनी ग्यारस तक हर प्रकार के मांगलिक कार्यों पर प्रतिबंध होता है। इस दौरान धार्मिक भजन कीर्तन और प्रभु श्री विष्णु, लक्ष्मी, तुलसी समेत शिव आराधना का विशेष महत्व है। चतुर्मास के दौरान हमारी विष्णु पूजा, लक्ष्मी पूजा या शिव पूजा का लाभ उठाने के लिए अभी संपर्क करें। चतुर्मास के दौरान रूद्राक्ष धारण करने का भी बेहद महत्व है। इस दौरान रुद्राक्ष धारण कर सकते हैं। उपरोक्त रूद्राक्ष पर प्रभु श्री कृष्ण, लक्ष्मी और नारायण का स्वामित्व है। देवशयनी एकादशी 2025 से इन रुद्राक्ष को धारण करने पर आपके जीवन के कष्टों का निवारण होगा और इन रूद्राक्षों की सकारात्मक उर्जा आपको आत्म स्व को मजबूत और पवित्र करने का कार्य करेगी।
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